ऐही ठेयां झुलनी हेरानी हो रामा! – शिव प्रसाद मिश्र की कहानी
महाराष्ट्रीय महिलाओ की तरह धोती लपेट, कच्छ बांधे दुलारी दनादन दंड लगाती जा रही थी। उसके शरीर से टपक टपक कर गिरी बूंदों से भूमि पर पसीने का पुतला बन गया था। कसरत समाप्त करके उसने चारखाने के अंगोछे से अपना बदन पोछा, बंधा हुआ जूड़ा खोलकर सिर का पसीना सुखाया और तत्पश्चात आदम कद आईने के सामने खड़ी होकर पहलवानों की तरह गर्व से अपने भुजदंडों पर मुग्ध दृष्टि फेरते हुए प्याज के टुकड़े और हरी मिर्च के साथ उसने कटोरी में भिगोए हुए चने चबाना आरंभ किया।
उसका चणक चर्वन पर्व अभी समाप्त नहीं हो पाया था कि किसी ने बाहर से बंद दरवाजे की कुंडी खटखटाई। दुलारी ने जल्दी-जल्दी कच्छ खोलकर बाकायदा धोती पहनी, केश समेटकर करीने से बांध लिए और तब दरवाजे की खिड़की खोल दी।
बगल में बंडल सी कोई चीज दवाएं दरवाजे के बाहर टुन्नू खड़ा था। उसकी दृष्टि सरमिली थी और उसके पतले होठों पर झेप भरी फीकी मुस्कुराहट थी । विलोल आंखें टुन्नु की आंखो से मिलाती हुई दुलारी बोली, “तुम फिर यहां, टुन्नू? मैंने तुम्हें यहां आने के लिए मना किया था ना?”
टुन्नु की मुस्कुराहट उसके होठों में ही विलीन हो गई। उसने गिरे मन से उत्तर दिया, “साल भर का त्यौहार था, इसलिए मैंने सोचा कि…..”, कहते हुए उसने बगल से बंडल निकाला और उसे दुलारी के हाथ में दे दिया। दुलारी बंडल लेकर देखने लगी। उसमें खद्दर की एक साड़ी लपेटी हुई थी। टुन्नु ने कहा, “यह खास गांधी आश्रम की बनी है।”
“लेकिन इसे तुम मेरे पास क्यों लाए हो?” दुलारी ने कड़े स्वर में पूछा। दोनों का शीर्ण बदन और भी सूख गया। उसने सूखे गले से कहा, “मैंने बताया न कि होली का त्यौहार था…” टुन्नु की बात काटते हुए दुलारी चिल्लाई, “होली का त्यौहार था तो तुम यहां क्यों आए? जलने के लिए क्या तुम्हें कहीं और चिता नहीं मिली जो मेरे पास दौड़े चले आए? तुम मेरे मालिक हो या बेटे हो या भाई हो, कौन हो? खैरियत चाहते हो तो अपना यह कफन लेकर यहां से सीधे चले जाओ।” और उसने उपेक्षा पूर्वक धोती टुन्नु के पैरों के पास फेंक दी। टुन्नु की काजल लगी बड़ी बड़ी आंखों में अपमान के कारण आंसू भर आए। उसने सिर झुकाए हुए आद्र कंठ से कहा, “मैं तुमसे कुछ मांगता तो हूं नहीं। देखो, पत्थर की देवी तक अपने भक्तों द्वारा दी गई भेट नहीं ठुकराती, तुम तो हाड़ मांस की बनी हो।”
हाड़ मांस की बनी हूं तभी तो…..”, दुलारी ने कहा।
टुन्नु ने जवाब नहीं दिया। उसकी आंखों से कज्जल- मलिन आंसुओं की बूंदे नीचे सामने पड़ी धोती पर टप-टप टपक रही थी। दुलारी कहती गई….।
टुन्नु पाषाण प्रतिमा बना हुआ दुलारी का भाषण सुनता जा रहा था। उसने इतना ही कहा, “मन पर किसी का बस नहीं, रूप या उम्र का कायल नहीं होता।” और कोठरी से बाहर निकल वह धीरे-धीरे सीढ़ियां उतरने लगा। दुलारी भी खड़ी खड़ी उसे देखती रही। उसकी भो अब भी वक्र थी, परंतु नेत्रों में कोतुक और कठोरता का स्थान करुणा की कोमलता ने ग्रहण कर लिया था। उसने भूमि पर पड़ी धोती उठाई, उस पर काजल से सने आंसुओं के धब्बे पड़ गए थे। उसने एक बार गली में जाते हुए टुन्नु की ओर देखा और फिर उस स्वच्छ धोती पर पड़े धब्बों को वह बार-बार चूमने लगी।
दुलारी के जीवन में टुन्नु का प्रवेश हुए अभी कुल छह मास हुए थे। पिछली भादों में तीज के अवसर पर दुलारी खोजवां बाजार में गाने गई थी। दुक्कड़ पर गाने वालियों में दुलारी की महती ख्याति थी। उसे पद्य में ही सवाल जवाब करने की अद्भुत क्षमता प्राप्त थी। कजली गाने वाले बड़े-बड़े विख्यात शायरों की उससे कोर दबती थी। इसलिए उसके मुंह पर गाने में सभी घबराते थे। उसी दुलारी को कजली जंगल में अपनी ओर खड़ा कर खोजवा वालों ने अपनी जीत सुनिश्चित समझ ली थी परंतु जब साधारण गाना हो चुकने पर सवाल जवाब के लिए दुक्कड़ पर चोट पड़ी और विपक्ष से सोलह सत्रह वर्ष का एक लड़का गौनहारियो की गोल में सबसे आगे खड़ी दुलारी की ओर हाथ उठाकर ललकार उठा- ” रनियां लड़ परमेसरी लोट!” तब उन्हें अपनी वजह पर पूरा विश्वास न रह गया।
बालक टुन्नु बड़े जोश से गा रहा था–
“रनियां लड परमेसरी लोट!
दरगोडे से घेवर बुंदिया
दे माथे मोती कड बिंदिया
और किनारी में सारी के
टांक सोनहली गोट। रनियां!….”
शहनाई वालों ने टुन्नु के गीत को बंद वाजे में दोहराया। लोग यह देखकर चकित थे की बात बात में तीरकमान हो जाने वाली दुलारी आज अपने स्वभाव के प्रतिकूल खड़ी खड़ी मुसकरा रही है। कंठ स्वर की मधुरता में टुन्नु दुलारी से होड़ कर रहा था और दुलारी मुग्ध खड़ी सुन रही थी।
टुन्नु के इस सार्वजनिक आविर्भाव का यह तीसरा या चौथा अवसर था। उसके पिता घाट पर बैठकर और कच्चे महाल के दस पांच घर याजमानी मैं सत्यनारायण की कथा से लेकर श्राद और विवाह तक करा कर कठिनाई से गृहस्थी की नौका खे रहे थे। परंतु पुत्र को आवारा की संगति में शायरी का चस्का लगा। उसने भेरोहेला को अपना उस्ताद बनाया और शीघ्र ही सुंदर कजली रचना करने लगा। वह पद्यात्मक प्रश्नोत्तरी में भी कुशल था और अपनी इसी विशेषता के बल पर वह बजर डीहा बालों की ओर से बुलाया गया था। उसकी ‘शायरी’ पर बजर डीहा वालों ने वाह-वाह का शोर मचा कर सिर पर आकाश उठा लिया। खोजवां वालों का रंग उतर गया। टुन्नु का गीत भी समाप्त हो गया।
पुन: दुक्कड़ पर चोट पड़ी। शहनाई का मधुर स्वर गूंजा। अब दुलारी की बारी आई। उसने अपनी दृष्टि मद विहल बनाते हुए टुन्नू के दुबले पतले परंतु गोरे गोरे चेहरे को भर आंख देखा और उसके कंठ से छल छल करता स्वर का सोता फूट निकला-
कोढ़ियल मुंहवै लेब वकोट
तोर बाप तट घाट अगोरलन
कौड़ी कौड़ी जोर बटोरलन
तै सरबउला बोल जिन्नगी में
कब देख ले लोट? कोड़ियल…..।’
अब बजरडीहा वालों के चेहरे हरे हो चले, वे वाह वाही देते हुए सुनने लगे। दुलारी गा रही थी-
‘ तुझे लोग आदमी व्यर्थ समझते हैं तू तो वास्तव में बगुला है। बगुले के पर जैसा ही तेरे शरीर का अंग है। वैसे तू बगुला भगत भी है। उसी तरह तुझे भी हंस की चाल चलने का हौसला हुआ है। परंतु कभी ना कभी तेरे गले में मछली का कांटा जरूर अटकेगा और उसी दिन तेरी कलई खुल जाएगी। इसके जवाब में टुन्नु ने गाया था-
“जेतना मन माने गरिआव
अईने दिलकश तपन बुझाव
अपने मनक बिथा सुना इव
हम डंके के चोट। रनियां…..!”
इस पर सुंदर ‘मालिक’ फेकू सरदार लाठी लेकर टुन्नु को मारने दौड़े। दुलारी ने टुन्नु की रक्षा की।
यही दोनों का प्रथम परिचय था। उस दिन लोगों के बहुत कहने पर भी दोनों में से किसी ने भी गाना स्वीकार नहीं किया। मजलिस बदमजा हो गई।
टुन्नु को विदा करने के बाद दुलारी प्रक्रतिस्थ हुई तो सहसा उसे ख्याल पड़ा कि आज टुन्नु की वेशभूषा में भारी अंतर था। आबरवा की जगह खद्दर का कुरता और लखनवी दोपलिया की जगह गांधी टोपी देखकर दुलारी ने टुन्नु से उसका कारण पूछना चाहा था। परंतु उसका अवसर ही नहीं आया। उसने धीरे-धीरे जाकर अपने कपड़ों का संदूक खोला और उसमें बड़े यतन से टुन्नु द्वारा दी गई साड़ी सब कपड़ों के नीचे दबा कर रख दी।
उसका चित्र आज चंचल हो उठा था। अपने प्रति टुन्नु के हृदय की दुर्बलता का अनुभव उसने पहले ही मुलाकात में कर लिया था। परंतु उसने उसे भावना की एक लहर मात्र माना था। बीच में भी टुन्नु उसके पास कई बार आया परंतु कोई विशेष बातचीत नहीं हुई। कारण, टुन्नु आता, घंटे- आध घंटे दुलारी के सामने बैठा रहता, पूछने पर भी हृदय की कामना प्रकट न करता केवल अत्यंत मनोयोग से दुलारी की बातें सुनता और फिर धीरे से छाया की तरह खिसक जाता। यौवन के अस्तांचल पर खड़ी दुलारी टुन्नु के इस उन्माद पर मन ही मन हंसती। परंतु आज उसे क्रश काय और कच्ची उमर के पांडु मुख बालक टुन्नु पर करूणा हो आई। अब दुलारी को यह समझने में देर न लगी कि उसके शरीर के प्रति टुन्नु के मन में कोई लोभ नहीं है। वह जिस वस्तु पर आसक्त है उसका संबंध शरीर से नहीं, आत्मा से है। उसने आज यह भी अनुभव किया कि आज तक उसने टुन्नु के प्रति जितनी अपेक्षा दिखाइ है वह सब कृत्रिम थी। सच तो यह है कि ह्रदय के एक निभ्रत कोने में टुन्नु का आसन द्रढ़ता से स्थापित है। फिर भी वह तथ्य स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं थी। वह सत्यता का सामना नहीं करना चाहती थी। वह घबरा उठी; विचार की उलझन से बचने लगी। उसने चूल्हा जलाया और रसोई की व्यवस्था में जुट पड़ी। त्यों ही धोतियो का एक बंडल लिए फेकू सरदार ने उसकी कोठरी में प्रवेश किया। दुलारी ने धोती यों का बंडल देख उधर से दृष्टि फेर ली। फेकू ने बंडल उसके पैरों के पास रख दिया और कहा, “देखो तो, कैसी बढ़िया धोतियां हैं!”
बंडल पर ठोकर जमाते हुए दुलारी ने कहा, “तुमने तो होली पर साड़ी देने का वादा किया था।”
“वह वादा तीज पर पूरा कर दूंगा। आजकल रोजगार बड़ा मंदा पड़ गया है,” फेकू ने समझाते हुए कहा।
दुलारी फेकू को उत्तर देना नहीं चाहती थी कि जलाने के लिए विदेशी वस्तुओं का संग्रह करता हुआ देश के दीवानों का दल भैरव नाथ ही सकरी गली में घुस आया और ‘भारत जननी तेरी जय, तेरी जय हो’ गीत की ध्वनि से उभय पशारव में खड़ी इमारतों की प्रत्येक कोठरी की गूंज गई। एक बड़ी सी चादर फैलाकर चार व्यक्तियों ने उसके चारों कोनों को मजबूती से पकड़ रखा था। उसी पर खिड़कियों से धोती, साड़ी, कमीज, कुरता, टोपी आदि की वर्षा हो रही थी।
सहसा दुलारी ने भी अपनी खिड़की खोली और मैनचेस्टर और लंका शायर के मिलो की बनी बारीक सूत की मखमली किनारों वाली नई कोरी धोतीयों का बंडल नीचे फैली चादर पर फेंक दिया। चादर संभालने वाले चारों व्यक्तियों की आंखें एक साथ खिड़की की ओर उठ गई; कारण, अब तक जितने वस्त्रों का संग्रह हुआ था वे अधिकांश फटे पुराने थे। परंतु यह जो नया बंडल गिरा उसकी धोतीयों की तह तक ने खुली थी। चारों व्यक्तियों के साथ जुलूस में शामिल सभी लोगों की आंखें बंडल फेंकने वाली की तलाश खिड़की में करने लगी, त्योही खिड़की पुनः धड़ाके से बंद हो गई। जुलूस आगे बढ़ गया।
जुलूस में सबसे पीछे जाने वाली खुफिया पुलिस के रिपोर्टर अली सगीर ने भी यह दृश्य देखा। अपनी फर्राटे मूछों पर हाथ फेरते हुए सजग नेत्रों से मकान का नंबर दिमाग में नोट कर लिया। इतने में ही ऊपर खिड़की का एक पल्ला फिर खुला और तुरंत ही पुनः धड़ाके से बंद भी हो गया। परंतु इसी बीच अली सगीर ने देख लिया कि किवाड़ दुलारी ने खोला था और एक पुरुष ने झटके से उसका हाथ किवाड़ के पल्ले पर से हटा दिया और दूसरे हाथ से पल्ला बंद कर दिया। उस पुरुष की आकृति में पुलिस के मुखबिर फेंकू सरदार की उड़ती झलक देख पुलिस रिपोर्टर के रोबीले चेहरे पर मुसकान की छीन रेखा क्षण भर के लिए खिंच गई। उसने तनिक हटकर चबूतरे पर बैठे बेनी तमोली के सामने एक दुअन्नी फेंक दी।
फेकू सरकार की चौड़ी और पुष्ट पीठ पर शपा शप झाड़ू झाड़ती और उसके पीछे पीछे धमा धम सीडी उतरती दुलारी चिल्लाई,” निकल निकल, अब मेरी देहरी डाका तो दांत से तेरी नाक काट लूंगी।”
उत्कट क्रोध से दुलारी की नथने फूल गए थे, अधर फड़क रहा था, आंखों से ज्वाला सी निकल रही थी। फेकू के गली में निकलते ही उसने दरवाजा बंद कर लिया। उधर पुलिस रिपोर्टर से आंखें चार होते ही झेपने के बावजूद लाचार सा होकर फेकू उसकी ओर बढा और इधर धीरे-धीरे दुलारी आंगन में लौटी। आंगन में खड़ी उसकी संगनियो और पड़ोसिनों ने उसकी ओर कुतुहल भरी दृष्टि से देखा, परंतु दुलारी ने उनकी ओर आँख तक नहीं उठाई। सीडी चढ़कर उपेक्षा से झाड़ू अपनी कोठरी के द्वार पर फेंकती हुई वह अपनी कोठरी में जा घुसी। चूल्हे पर बट लोही में दाल चुर रही थी। उसने पैर की एक ठोकर से बट लोहि उलट दी। सारी दाल चूल्हे में जा गिरी। आग बुझ गई।
परंतु दुलारी के दिल की आग अभी भट्टी की तरह जल रही थी। पड़ोसिनों ने उसकी कोठरी में आकर आग बुझाने के लिए मीठे वचनों की जलधारा गिराना आरंभ किया। फल स्वरुप वह ठंडी होने लगी।
दुलारी बोली, “तुम ही लोग बताओ, कभी टुन्नु को यहां आते देखा है?”
“यह तो आधी गंगा में खड़े होकर कह सकते हैं कि टुन्नु यहां कभी नहीं आता,” झींगुर की मां ने कहा। वह यह बात बिल्कुल भूल गई थी कि उसने कुल दो घंटा पहले टुन्नु को दुलारी की कोठरी से निकलते देखा था। झींगुर की मां की बात सुनकर अन्य स्त्रियां होठों में मुस्कुराई, परंतु किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। दुलारी पुनः शांत हो चली। इतने में कंधे पर जाल डालें 9 वर्षीय बालक झीगुर ने आंगन में प्रवेश किया और आते ही उसने ताजा समाचार सुनाया कि टुन्नु महाराज को गोरे सिपाहियों ने मार डाला और लाश भी उठा ले गए।
और कोई दिन होता तो दुलारी इस समाचार पर हंस पड़ती, टुन्नु को दो चार गालियां सुनाती, परंतु आज यह संवाद सुनकर वह स्तब्ध हो गई। उसने यह भी न पूछा की घटना कहां और किस तरह हुई। कभी किसी बात पर न पसीजने वाला उसका ह्रदय कातर हो उठा और सदैव मरूभूमि की तरह धू धू जलने वाली उसकी आंखों में मेघमाला घिर आई।
उसने पड़ोसियों की निगाह से अपने आंसुओं को छुपाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। पड़ोसन भी दुलारी के हृदय की यह कोमलता देख दंग रह गई। उन्होंने दुलारी की इस आचरण को बार वनिता सुलभ अभिनय मात्र समझा। बिट्टओ ने दिल्लगी भी की।
“मुझे लुकाछिपी फूटी आंख नहीं सुहाती। मैंने तो आज तक जो कुछ किया, सब डंके की चोट, “दुलारी ने कहा। वह उठी और सबके सामने संदूक खोल उसमें से टुन्नु की दी हुई आंसुओं के काले धब्बों से भरी खद्दर की धोती निकाल उसने पहन ली। उसने झिंगुर को बुला कर पूछा, “टुन्नु कहां मारा गया?” झिंगुर ने बताया, “टाउन हॉल!” और जब वह टाउन हॉल जाने के लिए घर से बाहर निकली तो दरवाजे पर ही थाने के मुंशी के साथ फेंकू सरदार ने आकर कहा कि दुलारी को थाने जाना होगा, आज अमन सभा द्वारा आयोजित समारोह में उसे गाना पड़ेगा।