सुभद्रा कुमारी चौहान हिंदी भाषा की प्रसिद्ध कवियत्री हैं । उन्होंने मेरा नया बचपन कविता अपने बचपन की यादों को सजाने के लिए लिखी है। जब भी कोई इस कविता को पड़ता है तो वह अपने बचपन की यादों मैं खो जाता है। आइए पढ़ते हैं मेरा नया बचपन – सुभद्रा कुमारी की कविता ।
मेरा नया बचपन – सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता
बार बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी।।
चिंता रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वछंद।
कैसे भूला जा सकता है, बचपन का अतुलित आनंद।।
ऊंच नीच का ज्ञान नहीं था, छुआछूत किसने जानी।
बनी हुई थी वहां झोपड़ी और चीथडों में रानी।।
किए दूध के कुल्ले मैंने चूस अंगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया।।
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिलाते थे।
बड़े-बड़े मोती से आंसू जयमाला पहनाते थे।।
मैं रोई, मां काम छोड़ कर आई, मुझको उठा लिया।
झाड़ पोछ कर चूम चूम कर गीले गालों को सुखा दिया।।
दादा ने चंदा दिखलाया नैन नीर युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देखकर सबके चेहरे चमक उठे।।
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई।।
लाज भरी आंखें थी मेरी, मन में उमंग रंगीली थी।
तान रसीली थी कानों में, मैं चंचल छैल छबीली थी।।
दिल में एक चुभन सी थी, यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सबके बीच अकेली थी।।
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे जवानी के फंदे में मुझको फंसा दिया तूने।।
माना, मैंने, युवा काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहने वाला है।।
किंतु यह झंझट है भारी, युद्ध क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना।।
आजा बचपन एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटाने वाली जय अपनी प्राकृत विश्रांति।।
वह भोली सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप।।
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन सी फूल उठी वह छोटी सी कुटिया मेरी ।।
माँ ओ! कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थी।
कुछ मुंह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने आई थी।।
पुलक रहे थे अंग, दृगो में कोतूहल था छलक रहा।
मुंह पर थी अहलाद लालिमा, विजय गर्व था झलक रहा।।
मैंने पूछा, यह क्या लायी? बोल उठी, “मां काओ।”
हुआ प्रफुल्लित ह्रदय खुशी से, मैंने कहा, “तुम खाओ!”
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।।
उसकी मंजू मूर्ति देखकर मुझमें नवजीवन आया।
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूं, तुतलती हूं।।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूं।
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया।
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