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आशुतोष राणा की हिंदी कविता-कलयुग

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भारत के जाने माने कलाकार और हिंदी लेखक आशुतोष राणा के द्रारा आजतक नई चैनल पर एक साहित्य सम्मलेन में इस कविता को सुनाया था। यह एक बहुत ही अच्छी कविता है जो हिंदी जानने वालो के लिए बहुत ही उपयोगी है। इस कविता में कलयुग और भगवान के मध्य संवाद स्थापित किया गया है। तो आइये पढ़ते है आशुतोष राणा की हिंदी कविता-कलयुग ।

कलयुग तू एक कल्पना है

अब अशुध्दि के लिए शुद्ध होना चाहता हूँ।
कुबुद्धि के लिए बुद्ध होना चाहता हूँ।
और चाहता हूँ इस जगत में शांति चारो और हो।
इस जगत के प्रेम पर में कृद होना चाहता हूँ।
चाहता हूँ तोड़ देना सत्य की सारी दीवारे।
चाहता हूँ मोड़ देना शांति की सारी गुहारे।
चाहता हूँ इस धरा पर दृष फुले और फले।
चाहता हूँ इस जगत के हर हृदय में छल पले।
मै नहीं रावण कि तुम आओ और मुझे मार दो।
मै नहीं वह कंस जिसकी वहां तुम उखाड़ दो।
मै जगत हूँ अधिष्ठाता मुझे पहचान लो।
हर हृदय में, मै वसा हूँ बात मेरी मान लो।
अब तुम्हारे भक्त भी मेरी पकड़ में आ गए है।
अब तुम्हारे संत जन वेहद अकड़ में आ गए है।
मारना है मुझ को तो, पहले इन्हे तुम मर दो।
और युद्ध करना चाहो तो पहले इन्ही से तुम रार लो।
ये तुम्हारे भक्त ही अब धुर विरोधी हो गए।
ये तुम्हारे संत जन, अब विकट क्रोधी हो गए है।
मै नहीं वश का तुम्हारे राम , कृष्णा और वृद्ध का।

Ashutosh Rana ki Hindi kavita “kalyug tu ek kalpana hai”

मै बनूँगा तुम्हारे नाश का कारण युद्ध का।
अब नहीं गलतिया में वैसी करू जो कर चुका।
रावण बड़ा ही वीर था वो कब का छल से मर चुका।
तुमने मारा कंश को कुश्ती में सब के सामने।
मै करूंगा हत तुम्हे बस्ती में सब के सामने।
कंश , रावण, दुर्योधन तुमको नहीं पहचानते थे।
वे निरहे मुर्ख थे बस जिद्द पकड़ना जानते थे।
मै नहीं ऐसा की छोटी बात पर अड़ जाऊंगा।
मै बड़ा होशियार खोटी बात कर बढ़ जाऊंगा।
अब मै नहीं जीतता दुनिया किसी भी देश को।
अब मै हड़प लेता इन मानवो के भेष को।
मेने सुना था तुम इन्ही की देह में हो वाश करते।
धर्म कर्म पाठ पूजा और तुम उपवास करते।
तुम इन्ही की आत्मा तन मन सहारे बढ़ रहे थे।
और तुम इन्ही को तारने मुझ से भी आकर लड़ रहे थे।
अब मनुज की आत्मा और मन में मेरा ही वाश है।
अब मनुज के तन का हर रोम मेरा दास है।
काटना चाहो मुझे तो पहले इन को काट दो।
और नष्ट करना है मुझे तो पहले इन का नाश हो।
तुम बहुत ही सत्यवादी धर्म रक्षक श्रेठ थे।

Ashutosh Rana ki Hindi kavita “kalyug tu ek kalpana hai”

इस कथित मानव की आशा तुम ही केवल इष्ट थे।
अब बचो अपने ही भक्तो से सभलो जान को।
और बन सके तो बचा लो अपने ही गौरव मान को।
अब नहीं मै रूप धर के सज सवर के घूमता हूँ।
अब नहीं मै छल कपट को सर पर रख के घूमता हूँ।
अब नहीं निंदनीय चोरी डकैती और आरणय।
अब हुए अभिनदनीय झूठ, हत्या और दमन।
मै कलि हूँ आचरण मेरे तुरित धारण करो।
अन्यथा अब कीर्ति कुंठा के उचित कारण बनो ।

महा मौन का मुखर घोष

तुम बहुत बोले में चुप चाप सुनता रहा।
तेरे ह्रदय की वेदना मैं मन ही मन गुणता रहा।
है बहुत सा क्रोध तेरे मन में सत्य के वास्ते।
चाहता तू बंद करना है सभी के रास्ते।
मुझ को चुनौती देके तू भगवान होना चाहता है।
अज्ञान का पुतला है तू पर ज्ञान होना चाहता है।
तू समय का मात्र प्रतिवाद और विवाद है।
तू स्वयं ही ब्रह्म और उस का नाद होना चाहता है।
तू विकट भीषण हलाहल है समय की चाल का।
तू स्वयं अब विश्व का गोपाल होना चाहता है।
तू स्वयं को कंश रावण से भी उत्तम मानता है।
तू स्वयं को विकट शक्ति शाली योद्धा जानता है।
तू नहीं कुछ भी कलि इस सत्य को तू जान ले।
और कुछ भी नहीं है वश में तेरे बात मेरी मान ले।

आशुतोष राणा की हिंदी कविता-कलयुग तू एक कल्पना है

जो भी तू बीत गया ऐसा कल है या आने वाले कल छल।
मै वर्तमान का महाराग, मै सदा उपस्थित पुलकित पल।
तू बीते कल की ग्लानि है या आने वाली चिंता है।
मै वर्तमान आनंदित छन , ये विश्व मुझी में खिलता है।
तू कल की बाते करता है, मैं कल्कि बन के आता हूँ।
मै तेरे कल की बातो को ,मैं कल्कि आज मिटाता हूँ।
तू कलि कपट का ताला है, मैं कल्कि उस की ताली हूँ।
तू शंका की महाधुंध, मैं समाधान की लाली हूँ।
कल का मतलब जो बीत गया, कल का मतलब जो आएगा
कल का मतलब है जो मशीन, कल जो वो दुख पहुचायेगा।
कल का मतलब जो ग्लानि है ,कल का मतलब जो चिंता है।
कल का मतलब जो पास नहीं , कल कभी किसी को मिलता है।
कल तो बस एक खुमारी है, कल बीत रही बीमारी है।

कल मनुज ह्रदय की प्रत्यासा, कल तो उसकी बेकारी है।
कल वो जिस का अस्तित्व नहीं, कल वो जिस का व्यक्तित्व नहीं।
कलयुग तो एक कल्पना है, इसमें जीवन का सत्य नहीं।
कलि अभी तू कच्चा है, तू वीर नहीं बस बच्चा है।
चल तुझ को मै आज बताता हूँ विश्व रूप दिखलाता हूँ।
मैं सत्य सनातन आदी पुरुष, मैं सत्य सनातन शक्ति हूँ।

आशुतोष राणा की हिंदी कविता-कलयुग तू एक कल्पना है

मै अखिल विश्व की श्रद्धा हूँ , मै मनुज हृदय की भक्ति हूँ
जब सत्य जागता है मुझ मै, मै सतयुग नाम धराता हूँ।
जब राम प्रकट हो जाते है ,  मै त्रेता युग कहलाता हूँ
जब न्याय – धर्म की इच्छा हो, द्वापर युग हो जाता हूँ।
जब काम, क्रोध, मद , लोभ उठे , तब कलि काल कहलाता हूँ
आनंद मगन जब होता हूँ, शिव चंगु कहलाता हूँ।
जब प्रलय तांडव नृत्य करू, तब महाकाल हो जाता हूँ
मै ही महादेव की डमरू, मै ही वंशीधर का वंशी ।
और में ही परशुराम का फरसा, में ही श्री राम का बाण
तू रावण का कोलाहल है, और कंश का हाहाकार
में सृष्टि का विजय नाद हूँ और मनुज हृदय की जय जयकार।
में भी अनंग, तू भी अनंग
तू संग संग , में अंग अंग
तू है अरूप, में दिव्य रूप

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